क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे
दिल वो बेमेह्र कि रोने के बहाने माँगे
(क़ुर्बतों = निकटता, सामीप्य), (बेमेह्र = निर्दयी)
अपना ये हाल के जी हार चुके, लुट भी चुके
और मुहब्बत वही अन्दाज़ पुराने माँगे
यही दिल था कि तरसता था मरासिम के लिए
अब यही तर्क-ए-तअल्लुक़ के बहाने माँगे
(मरासिम = मेल-जोल, प्रेम-व्यवहार), (तर्क-ए-तअल्लुक़ = संबंध-विच्छेद)
हम न होते तो किसी और के चर्चे होते
ख़िल्क़त-ए-शहर तो कहने को फ़साने माँगे
(ख़िल्क़त-ए-शहर = शहर के लोग/ जन-समूह)
ज़िन्दगी हम तेरे दाग़ों से रहे शर्मिन्दा
और तू है कि सदा आइनाख़ाने माँगे
(आइनाख़ाने = शीशमहल, वह मकान जिसके चारों तरफ़ दर्पण लगे हुए हों)
दिल किसी हाल पे क़ाने ही नहीं जान-ए-'फ़राज़'
मिल गये तुम भी तो क्या और न जाने माँगे
(क़ाने = संतुष्ट)
-अहमद फ़राज़
दिल वो बेमेह्र कि रोने के बहाने माँगे
(क़ुर्बतों = निकटता, सामीप्य), (बेमेह्र = निर्दयी)
अपना ये हाल के जी हार चुके, लुट भी चुके
और मुहब्बत वही अन्दाज़ पुराने माँगे
यही दिल था कि तरसता था मरासिम के लिए
अब यही तर्क-ए-तअल्लुक़ के बहाने माँगे
(मरासिम = मेल-जोल, प्रेम-व्यवहार), (तर्क-ए-तअल्लुक़ = संबंध-विच्छेद)
हम न होते तो किसी और के चर्चे होते
ख़िल्क़त-ए-शहर तो कहने को फ़साने माँगे
(ख़िल्क़त-ए-शहर = शहर के लोग/ जन-समूह)
ज़िन्दगी हम तेरे दाग़ों से रहे शर्मिन्दा
और तू है कि सदा आइनाख़ाने माँगे
(आइनाख़ाने = शीशमहल, वह मकान जिसके चारों तरफ़ दर्पण लगे हुए हों)
दिल किसी हाल पे क़ाने ही नहीं जान-ए-'फ़राज़'
मिल गये तुम भी तो क्या और न जाने माँगे
(क़ाने = संतुष्ट)
-अहमद फ़राज़
ग़ुलाम अली/ Ghulam Ali
सोनू निगम/ Sonu Nigam
तलत अज़ीज़/ Talat Aziz
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी है और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - शुक्रवार- 27/03/2015 को
ReplyDeleteहिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः 45 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें,
शुक्रिया पढ़वाने के लिए , मंगलकामनाएं !
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर ग़ज़ल
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