Tuesday, February 12, 2013

फिर उसी रहगुज़र पर शायद
हम कभी मिल सकें मगर शायद

जान-पहचान से भी क्या होगा,
फिर भी ऐ दोस्त गौर कर! शायद

मुंतज़िर जिनके हम रहे उनको,
मिल गए और हमसफ़र, शायद

(मुंतज़िर = प्रतीक्षारत)
अजनबियत की धुंध छट जाए,
चमक उट्ठे तेरी नज़र शायद

ज़िन्दगी भर लहू रुलायेगी,
यादे-याराने-बेख़बर शायद 

जो भी बिछ्ड़े हैं कब मिले हैं 'फ़राज़'
फिर भी तू इंतज़ार कर शायद
-अहमद फ़राज़

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