Thursday, November 15, 2012

तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे
यार की आख़िरी पूंजी भी लुटा आया हूं
अपनी हस्ती को भी, लगता है, मिटा आया हूं
उम्र भर की जो कमाई थी, गंवा आया हूं

तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूं
आग बहते हुये पानी में लगा आया हूं

तूने लिक्खा था जला दूं मैं तिरी तहरीरें
तू ने चाहा था जला दूं मैं तिरी तस्वीरें
सोच लीं मैंने मगर और ही कुछ तदबीरें

तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूं
आग बहते हुये पानी में लगा आया हूं

तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे
प्यार में डूबे हुये ख़त मैं जलाता कैसे
तेरे हाथों के लिखे ख़त मैं जलाता कैसे

तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूं
आग बहते हुये पानी में लगा आया हूं

जिन को दुनिया की निगाहों से छुपाये रक्खा
जिन को इक उम्र कलेजे से लगाये रक्खा
दीन जिन को, जिन्हें ईमान बनाये रक्खा

जिन का हर लफ़्ज़ मुझे याद था पानी की तरह
याद थे मुझ को जो पैग़ामे-ज़ुबानी की तरह
मुझ को प्यारे थे जो अनमोल निशानी की तरह

तू ने दुनिया की निगाहों से जो बच कर लिक्खे
सालहा-साल मेरे नाम बराबर लिक्खे
कभी दिन में तो कभी रात को उठ कर लिक्खे

तेरे रूमाल, तेरे ख़त, तेरे छल्ले भी गये
तेरी तस्वीरें, तेरे शोख़ लिफ़ाफ़े भी गये
एक युग ख़त्म हुआ युग के फ़साने भी गये

तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूं
आग बहते हुये पानी में लगा आया हूं

कितना बेचैन उन्हें लेने को गंगा जल था
जो भी धारा था उन्हीं के लिये वो बेकल था
प्यार अपना भी तो गंगा की तरह निर्मल था

तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूं
आग बहते हुये पानी में लगा आया हूं
-राजेन्द्र नाथ ‘रहबर’

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