Wednesday, September 26, 2012

सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं
लेकिन ये सोचता हूँ कि अब तेरा क्या हूँ मैं

बिखरा पड़ा है तेरे ही घर में तेरा वजूद
बेकार महफ़िलों में तुझे ढूँढता हूँ मैं

मैं ख़ुदकशी के जुर्म का करता हूं एतराफ़
अपने बदन की क़ब्र में कबसे गड़ा हूं मैं

 (एतराफ़ = इकरार करना, मानना)

किस-किसका नाम लाऊँ ज़बाँ पर कि तेरे साथ
हर रोज़ एक शख़्स नया देखता हूँ मैं

ना जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम
दुनिया समझ रही है के सब कुछ तेरा हूं मैं

ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रक़ीब
दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं

पहुँचा जो तेरे दर पे तो महसूस ये हुआ
लम्बी सी एक क़तार में जैसे खड़ा हूँ मैं

जागा हुआ ज़मीर वो आईना है ‘क़तील’
सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूं मैं

(ज़मीर = मन, विवेक)

-क़तील शिफाई

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