Sunday, September 30, 2012

अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको
मैं हूँ तेरा तो नसीब अपना बना ले मुझको।

मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के माने
ये तेरी सादा-दिली मार ना डाले मुझको।

ख़ुद को मैं बाँट ना डालूँ कहीं दामन-दामन
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको।

तूने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी
ख़ुदपरस्ती में कहीं तू न गवां ले मुझको।

मैं समन्दर भी हूँ, मोती भी हूँ, ग़ोता-ज़न भी
कोई भी नाम मेरा लेके बुलाले मुझको

कल की बात और है मैं अब सा रहूं या न रहूं
जितना जी चाहे तेरा आज सताले मुझको।

मैं खुले दर के किसी घर का हूं सामां प्यार
तू दबे पांव कभी आके चुराले मुझको।

तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम
तू कभी याद तो कर भूलाने वालो मुझको।

बादा फिर बादा है मैं ज़हर भी पी जाऊं 'क़तील'
शर्त ये है कोई बाहों में सम्भाले मुझको।
-क़तील शिफाई

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